गंगा दशहरा 2 जून से प्रारंभ हो रहा है। जिस गंगा के अवतरण के लिए सगर और भगीरथ के बीच की पांच पीढि़यों ने हजारों वर्र्षो का कठिन तप किया, उस जीवनदायिनी गंगा को हम इस अवसर पर बचाने का संकल्प लें..
भारतीय सस्कृति और जीवन-दर्शन में गगा का स्थान अनन्य है। ढाई हजार किलोमीटर के वृहद प्रक्षेत्र में प्रवाहित होती हुई वह सबधित इलाकों का तो सीधे भरण-पोषण कर ही रही है, इसके अतिरिक्त पूरे भारत के असख्य लोगों के हृदय में प्राण-धारा बनकर प्रवाहित हो रही है। इसे दुखद कहा जाएगा कि हमारी ही लापरवाही से आज गगा की धारा कमजोर और प्रदूषित हो चली है। निश्चय ही गगा के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति का सबसे सही तरीका यही होगा कि हम गगा को प्रदूषण-मुक्त करने और बचाने का दृढ़ सकल्प लें।
गगा का धरती पर अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हुआ था। इसी तिथि को गगा दशहरा मनाने की परंपरा है। काशी में तो गगा दशहरा एक लोक-पर्व के रूप में लोकप्रिय रहा है। इस अवसर पर कन्याएं गुड्डे-गुडियों का विवाह रचाती हैं और उनका दीप-पुष्पादि के साथ विसर्जन कर देती हैं। वैसे तो सभी घाटों पर इसकी धूम रहती है, किंतु दशाश्वमेध घाट व पचगगा घाट पर विशेष गहमागहमी रहती है। सुखी दांत्पत्य जीवन की कामना के साथ ही लोक मानस से गगा का जुड़ाव इसका उद्देश्य है। मान्यता है कि इस अवसर पर गगा स्नान करने से मानसिक, वाचिक और कायिक दसों दोष नष्ट हो जाते हैं। मानसिक मैल माने गए हैं- पराया धन हड़पने का विचार, दूसरे का अहित सोचना और नास्तिकता, जबकि वाचिक मैल हैं- कटु सभाषण, मिथ्या सभाषण और परनिदा। शारीरिक क्रिया-दोष माने गए हैं- व्यर्थ सभाषण, शास्त्र द्वारा वर्जित हिंसा, चोरी और अनैतिक सबध।
गगा का धरा पर अवतरण भगीरथ के तप से हुआ है, यह तो सबको पता है किंतु कम ही लोग जानते होंगे कि इसके पीछे अकेले उनकी ही तपस्या नहीं थी। महाराज सगर और भगीरथ के बीच की पाच पीढि़यों ने हजारों साल तक तपस्या की थी, तब जाकर गगा धरती पर आई थीं। कथा है कि महाराज सगर ने अश्वमेध यज्ञ कराया था। वह सत्यवादी हरिश्चंद्र की आठवीं पीढ़ी के महाराजा थे। सगर का अश्वमेध यज्ञ ऐसा प्रभावशाली हुआ कि इंद्र का सिहासन डोल गया। वह भागते हुए पृथ्वी पर आए और उन्होंने सगर के अश्वमेध यज्ञ के छूटे हुए घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बाध दिया। सगर के साठ हजार पुत्र अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा खोजते हुए आश्रम तक पहुंचे। उन लोगों ने मुनि को ही दोषी समझ लिया। समाधि में लीन मुनि के साथ भी दुर्व्यवहार करने लगे। आश्रम में भारी उत्पात मचाते रहे। अंतत: कपिल मुनि की समाधि टूट गई। उन्होंने कुपित होकर ज्यों ही दृष्टि खोली, अग्नि की धारा भभक उठी। पल भर में सगर के सभी साठ हजार पुत्र भस्म हो गए!
अपने पुत्रों की मुक्ति के लिए गगा को धरती पर उतारने हेतु स्वय महाराज सगर ने ही सबसे पहले तपस्या शुरू की। उनकी दूसरी पत्नी से भी एक पुत्र था असमंजस। तपस्या लबी खिंच रही थी, किंतु गगावतरण की कहीं कोई सभावना तक नहीं दिख रही थी। अंतत: महाराज सगर ने पुत्र असमजस को यह दायित्व सौंपा। उन्होंने सैकड़ों साल तक तप किया। सफलता दूर-दूर तक नहीं दिख रही थी। उन्होंने यह दायित्व अपने पुत्र अंशुमान, जिन्हें खटवाग भी कहा जाता था, को सौंप दिया। अंशुमान ने भी सैकड़ों साल तप किया, किंतु गगा नहीं उतरीं। वार्धक्य सामने आ गया, तो अंशुमान ने अपने पुत्र दिलीप को तप-दायित्व सौंप दिया।
दिलीप ने तपस्या शुरू की। कथा में उल्लेख है कि दिलीप की तपस्या भी सैकड़ों साल चली। इसके बावजूद गगा प्रसन्न नहीं हुईं। अंतत: उन्होंने भी यह दायित्व अपने पुत्र भगीरथ को सौंप दिया। भगीरथ का तप शुरू हुआ। सैकड़ों साल चला, किंतु उनकी साधना बेकार नहीं गई। अंतत: गगा प्रसन्न हुईं और धरती पर अवतरित हो गईं। गगा ने भगीरथ के पुरखों को तार दिया। हजारों साल से गंगा लगातार भारत की करीब ढाई हजार किलोमीटर भूमि को सिचित और करोड़ों लोगों का भरण-पोषण कर रही है। गगा दशहरा पर हमें इसका महत्व समझना चाहिए और गंगा की रक्षा करने का दृढ़ सकल्प लेना चाहिए।
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